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कांग्रेस और स्वतंत्रता संग्राम
12 जनवरी 2018 (14:40)

कांग्रेस की स्थापना सन 1885 में ब्रिटिश राज से सेवानिवृत्त अंग्रेज श्री एलन आक्टोवियन ह्यूम ने की थी जिसको उस समय के वाइसराय का लिखित समर्थन प्राप्त था I कांग्रेस के स्थापना का मुख्य उद्देश्य जनता की भावनाओं को ब्रिटिश राज तक पहुंचाना और जनता को ब्रिटिश राज के लाभ गिनाना तथा ब्रिटिश राज की कारगुजारियों को औचित्यपूर्ण साबित करना था I इस कार्य के लिए ज्यादातर वो लोग चुने गए जो अंग्रेजों के प्रति मित्रवत व्यवहार रखते थे और अंग्रेजी सभ्यता के प्रति खासा झुकाव भी था I कुल मिला कर इनके कन्धों पर ब्रिटिश राज को निर्बाध चलाने का सामाजिक दायित्व था I शुरुआती काल में, दो अन्य अंग्रेज सदस्यों के साथ श्री ह्यूम की अध्यक्षता में कांग्रेस का जनमानस पर बहुत असर नहीं दीखता था I इधर स्वतन्त्रता आंदोलन पूरे भारत में अपने पूरे चरम पर था, ब्रिटिश राज की चूलें हिल रही थीं, उनके लिए अब भारत में बने रहना संभव नहीं था I हालात एकदम स्वतन्त्रता के निकट आ रखे थे की इसी में 1912 में श्री ह्यूम का निधन हो जाता है, इस रिक्तता को भरने के लिए ब्रिटिश राज एक नयी रणनीति पर कार्य करने लगी थी, एक ऐसी रणनीति जो कांग्रेस को और अधिक व्यापक और असरदार बना सके जो राष्ट्रव्यापी जनाक्रोश, जनआन्दोलनों को ठंडा कर सके और साथ ही साथ जनता को सैनिक या हथियारबंद विरोध की विचारधारा से विमुख कर सके I

श्री एलन आक्टोवियन ह्यूम
श्री एलन आक्टोवियन ह्यूम
Zulu-War

अब यहां पर ब्रिटिश सेना के सार्जेंट मेजर मोहनदास करमचंद गांधी का भारत में प्रवेश होता है I गाँधीजी का जन्म सन 1869 में हुआ I अभावों के मध्य औसत दर्जे की हाई स्कूल तक की पढ़ाई और अंग्रेजी माध्यम ना झेल पाने के कारण समलदास कॉलेज, भावनगर की पढ़ाई छोड़ने के बाद, गाँधीजी, सन 1888 में कानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लॅण्ड चले गए I ये वह कालखंड था जब 18-20 साल के युवा हँसते हँसते अपने राष्ट्र पर न्योछावर हो रहे थे, अपने जीवन का बलिदान दे रहे थे, लोग गोलियों से भूने जा रहे थे और ब्रिटिश राज का अत्याचार अपने चरम पर था, लेकिन शायद महात्मा बनने की सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी जिससे पीछे हटना संभव नहीं था I

गाँधीजी ने कानून की पढ़ाई ‘इनंस ऑफ़ कोर्ट’ से की थी जहां पर प्रवेश के दो मुख्य नियम थे - पहला, अभ्यर्थी का स्नातक होना तथा, उसका अंग्रेजी भाषा में निपुण होना I दुर्भाग्य से गाँधीजी के पास दोनों ही नहीं थे लेकिन फिरभी उन्हें प्रवेश मिला I उनके इंग्लॅण्ड प्रवास और शिक्षा का खर्च कौन वहन करता था, ये भी एक पहेली ही है I हालांकि कहा जाता है की ब्रिटिश नेवी के एडमिरल एडमण्ड स्लैड ने गांधीजी की पढ़ाई का खर्च उठाया था और बाद में जिनकी बेटी सुश्री मेडलिन स्लैड स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी की सहयोगी (?) बन कर गांधीजी के साथ साये की तरह रहीं और सुश्री मीराबेन के नाम से जानी गयीं I है ना रोचक? 

सन 1888 से लेकर सन 1915 तक कुल 27 साल गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका और इंग्लॅण्ड में रहे, इस काल में सार्जेंट मेजर गांधी ने ब्रिटिश राज की ओर से ख़ूनी बोअर युद्ध (1899) में दक्षिण अफ्रीका की धरती पर हिस्सा लिया I ब्रिटिश सेना के कमांडर लार्ड रॉबर्ट्स ने बोअर महिलाओं और बच्चों को यातना देकर मारने का कैंप लगाया था जिसपर हमारे अहिंसा के पुजारी को कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि ये ब्रिटिश राज के हित में थी I आप जानकार हैरान होएंगे की ये युद्ध सिर्फ दक्षिण अफ्रिका से सोना लूटने के लिए हुआ था I इसके अलावा प्रथम विश्व युद्ध में भी गाँधीजी ने ब्रिटिश सेना में भर्ती अभियान तो चलाया लेकिन युद्ध शुरू होने से ठीक पहले बीमार पड़ जाने के कारण उनका ब्रिटिश राज के प्रति अपनी वफादारी को पुनः साबित करने का अवसर हाथ से चला गया I इसके बाद ये स्थायी रूप से भारत आ गए I   

अर्थात, अपने जीवन के प्रथम 45 साल भारत भूमि और उसकी समस्यायों से दूर बिताने के बाद सन 1915 में अचानक से भारत लौटते हैं और पहले से तैयार मीडिया उनको 'अहिंसा का पुजारी' और 'मानवाधिकार का मसीहा' और ना जाने कौन कौन सी उपाधि देनी शुरू कर देते है I रही सही कसर नोबेल पुरस्कार पूरा कर देती है और गांधीजी को 'महात्मा' की उपाधि मिल जाती है. I यहां से 'महात्मा गाँधी' का जन्म होता है I 

महात्मा के जन्म के बावजूद कांग्रेस और महात्मा की पहुँच जनमानस से कोसों दूर थी, इसलिए, अन्य विश्वसनीय चेहरों को जोड़ने की आवश्यकता महसूस हुई I इसी कड़ी में श्रद्धेय सरदार पटेल और श्रद्धेय नेताजी सुभाषचंद्र बोस को जोड़ा गया I सरदार पटेल तो जैसे तैसे स्थितियों को संभाल (या झेल) गए लेकिन नेताजी की गरम विचारधारा महात्मा के ब्रिटिश वफादारी के आड़े आ गयी और स्थिति यहां तक पहुँच गयी की जब नेताजी जनवरी 1939 में दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो महात्मा आपे से बाहर हो गए और जहर तक खाने की धमकी दे दी I अंततः, नेताजी को इस्तीफा देना पड़ा, स्मरण रहे, ये वो समय था जब द्वितीय विश्व युद्ध की चिंगारी भड़कने वाली थी और भारत के स्वतंत्र होने का सुनहरा अवसर था I संभवतः यही कारण था की महात्मा को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर जवाहरलाल नेहरूजी चाहिए थे ताकि ब्रिटिश राज को भारत में किसी समस्या का सामना ना हो I यहीं से कांग्रेस और नेताजी के रास्ते अलग हो गए I जहां तक जवाहरलाल नेहरूजी का सवाल है तो उनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं था, वो शुरू में सिर्फ महात्मा की और बाद में ब्रिटिश राज की वफादारी से लाभ लेने के प्रयास में लगे रहते थे I 

कांग्रेस का अहिंसा के मार्ग पर चलना सिर्फ एक छलावा था ताकि देश में सभी को इस मार्ग पर चला कर ये सुनिश्चित किया जा सके की कोई भी सैनिक विद्रोह या हिंसक आंदोलन ब्रिटिश राज को ना झेलना पड़े I कांग्रेस ने 1947 तक के कुल जीवन में तीन - चार प्रभावहीन आंदोलन किये और किसी को भी निष्कर्ष तक नहीं पहुँचाया I इनमें से मुख्यतः दो आन्दोलनों का जिक्र आवश्यक है जो की भारत की जनता के साथ भयानक धोखा था I पहला था, खिलाफत आन्दोलन और दूसरा था, असहयोग आन्दोलन I

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Studio/31.10.49,A22b
Sardar Vallabhbhai Patel photograph on October 31, 1949, his 74th birthday.

भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत (अंग्रेजी के caliphet से खिलाफत बना) आंदोलन को तुर्की के खलीफा के समर्थन में शुरू किया था जिसे बाद में गाँधीजी ने अपने हाथ में लेकर उसके अग्रणी नेता बन गए और खिलाफत आन्दोलन को ब्रिटिश राज की खिलाफत कह कर प्रचारित करने और जनता को भ्रम में डालने का असफल प्रयास भी किया I ध्यान देने योग्य बात ये है की स्वयं तुर्की के लोग इस खलीफा राज के खिलाफ थे और वो सम्पूर्ण गणराज्य की मांग कर रहे थे लेकिन भारतीय मुसलमानों को खलीफा चाहिए था I 22 जून 1920 को भारत की खिलाफत कमेटी ने उस समय के वाइसराय को एक सन्देश भेजा की अगर उनकी मांगे नहीं मानी गयी तो वो ब्रिटिश राज के खिलाफ असहयोग शुरू करेंगे, और फिर, 01 अगस्त 1920 को खिलाफत कमेटी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ लेकिन इसका उद्देश्य वह नहीं था जो हमें पढ़ाया जाता है I कांग्रेस ने गाँधीजी के निर्देश पर इस आन्दोलन को अंगीकार कर लिया था, खिलाफत आन्दोलन में हिन्दू जनमानस की उदासीनता से कांग्रेस विचलित थी और इसे किसी भी कीमत पर सफल बनाने के लिए उसने एक बार फिर असहयोग आन्दोलन के जरिये देश को धोखा देने का प्रयास किया और इसमें वो काफी हद तक सफल भी रही I खलीफा के समर्थन में असहयोग आन्दोलन कर रही जनता यही समझती रही की वो भारत की स्वतन्त्रता के लिए असहयोग आन्दोलन कर रही है I

इन दो आन्दोलनों के कारण गाँधीजी और नेहरूजी के नेतृत्व वाली कांग्रेस से देश भर के अधिकतर राष्ट्रवादी नेताओं का मोहभंग होना शुरू हो गया और वो कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों और आन्दोलनों से दूरी बनाने लगे क्योंकि ज्यादातर आन्दोलन लोगों को भरमाने के लिए ही होते थे जो अचानक से बीच में ही समाप्त कर दिए जाते थे I ब्रिटिश राज की भक्ति के बाद मुस्लिम तुष्टिकरण की इस पराकष्ठा से दुखी होकर कांग्रेस के ही एक कार्यकर्ता श्री केशव बलिराम हेडगेवार ने चंद छोटे छोटे बच्चों के साथ 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' की स्थापना कर डाली और कहा : "मैं हिन्दुओं का इतना बड़ा संगठन बनाऊंगा की भारत का कोई भी दल या नेता हिन्दुओं की उपेक्षा करने का साहस नहीं कर सकेगा I"

डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार
डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार

ये वो कालखंड था जब हज़ारों युवा राष्ट्र की बेदी पर बलि चढ़ रहे थे I श्री भगत सिंह, श्री राजगुरु, श्री सुखदेव, श्री चंद्रशेखर आज़ाद जैसे अनेकों राष्ट्रभक्त माँ भारती पर बलिदान हो गए I वीर सावरकर और उनके भ्राता को 50-50 वर्ष कालापानी की सजा दे दी गयी I ब्रिटिश राज का विरोध धीरे धीरे अपने चरम पर पहुँच रहा था I नेताजी सुभाषचंद्र बोस को इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) के गठन के बाद देश ही छोड़ना पड़ गया, और इधर कांग्रेस अपने महात्मा और उनके प्रिय नेहरूजी के नेतृत्व में ब्रिटिश राज के साथ स्वतन्त्रता संग्राम का बैडमिंटन हौले -हौले खेल रही थी और जनता को भी इसी में उलझा कर रखने का प्रयास कर रही थी I इधर, आईएनए के गठन के बाद ब्रिटिश सेना में, जिसमें ज्यादातर भारतीय ही थे, विरोध और असंतोष के स्वर उभरने लगे और वो ब्रिटिश सेना को छोड़ कर आईएनए की तरफ रुख करने लगे I ब्रिटिश राज पर अब चौतरफा दबाव बढ़ने लगा था, एक तरफ लगातार हो रहे उग्र आंदोलन, हमले और सैन्य कार्यवाही की तैयारी और दूसरी तरफ लगातार घटती ब्रिटिश सेना I

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ऐसे समय में ब्रिटिश राज को अपने दो नयनतारे याद आये, मंत्रणा आरम्भ हुई और आनन्-फानन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को युद्ध अपराधी घोषित करके आईएनए को प्रतिबंधित किया गया I उम्मीद थी की स्थितियों में सुधार होगा किन्तु परिस्थितियां बिगड़ती ही गयीं और अंततः सत्ता के हस्तांतरण का निर्णय लिया गया I ये वो क्षण था जब भारतीय मुसलमानों की भूमिका भी खुल कर सामने आनी थी और आयी भी I मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुसलमानों ने दो टूक कह दिया की वो हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते इसलिए उन्हें अलग 'इस्लामिक मुल्क' चाहिए I मुस्लिम परस्त महात्मा का जिन्ना को भरपूर मूक समर्थन मिला I विभाजन हो या ना हो, इसके लिए पूरे देश में मतदान करवाया गया और मत देने का अधिकार केवल मुसलमानों को दिया गया I परिणाम अपेक्षित थे, 95% मुसलमानों ने देश के विभाजन के समर्थन में अपना मत दिया और हमारा राष्ट्र टूट गया I हैरानी इस बात पर होती है की पिछले सत्तर सालों में भारतीय समाज एक बार भी ये सवाल ना उठा सका की समूचे राष्ट्र के भाग्य के निर्णय जैसे महत्वपूर्ण विषय पर बहुसंख्यक समाज को अपना मत देने का अधिकार क्यों नहीं था ? कांग्रेस, गांधीजी और नेहरूजी किस अधिकार और जनादेश से भारत के भाग्यविधाता बन बैठे और राष्ट्र के टुकड़े कर दिए ? यहां पर एक बात स्पष्ट हो जानी चाहिए की कोई भी राष्ट्र का पिता नहीं हो सकता, सभी राष्ट्र की संतान हैं I 

द्वितीय विश्वयुद्द के बाद अंग्रेजों ने श्रद्धेय नेताजी सुभाषचंद्र बोस को युद्ध अपराधी घोषित कर दिया जिस कारण उन्हें 1945 में देश छोड़ कर गुमनामी का रास्ता चुनना पड़ा I ऐसा नहीं था की नेताजी को अंग्रेजों से कोई भय था लेकिन अंग्रेजों के प्रभावशाली कांग्रेसी मुखबिरों के कारण नेताजी का भारत में ही गुमनाम रह पाना संभव नहीं था I नेताजी को किनारे करने के बाद नंबर आया आईएनए (इंडियन नेशनल आर्मी) का, जिसको अधिकतर ब्रिटिश आर्मी से मातृभूमि के लिए विद्रोह किये सैनिकों ने नेताजी के नेतृत्व में खड़ा किया था I अंग्रेजों ने आईएनए को प्रतिबंधित करके उसके सैनिकों को ब्रिटिश सेना का भगौड़ा घोषित कर दिया I अंग्रेजों से तो अपेक्षित था लेकिन दुर्भाग्य ये है की नेहरूजी के नेतृत्व और गांधीजी की छत्रछाया में बनी स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने भी मातृभूमि के लिए लड़े और बलिदान हुए इन सैनिकों को 'भगौड़ा' ही माना और 'स्वतन्त्रता सेनानी' का दर्जा देने से इंकार कर दिया I  

इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए)
इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए)

बचपन से घुट्टी पिलाई जाती रही है की अंग्रेजों ने गाँधीजी और नेहरूजी के सामने घुटने टेक दिए और भारत छोड़ कर चले गए I भारतीय समाज ने आजतक ये सवाल नहीं पूछा की जिनके सामने अंग्रेजों ने घुटने टेक दिए, उन शूर-वीरों ने जिन्ना जैसे अदने आदमी के सामने घुटने क्यों टेक दिए और राष्ट्र का विभाजन स्वीकार कर लिया ? जब अंग्रेजों ने घुटने टेक ही दिए थे तो उनके विभाजन का प्रस्ताव क्यों स्वीकार किया गया ? सबसे महत्वपूर्ण, अगर अंग्रेजों और मुसलमानों के विभाजन की जिद को अस्वीकार कर दिया जाता तो क्या हो जाता ? स्मरण रहे, दस लाख लोग विभाजन के कारण मारे गए थे I    

ऐसा कहा जाता है की, गांधीजी की हिन्दू विरोधी नीतियों से दुखी हो कर श्री नाथूराम गोडसे ने अपने सहयोगी श्री नारायण आप्टे तथा अन्य के साथ मिलकर गांधीजी की हत्या कर दी जिस अपराध में उन दोनों को फांसी की सजा हुई I हैरानी इस बात पर है की अपने निहित स्वार्थ में डूबा भारतीय समाज पिछले सत्तर साल में ये पूछ नहीं सका की लाश का पोस्टमॉर्टम क्यों नहीं हुआ ? जब लाश का पोस्टमॉर्टम हुआ ही नहीं तो अदालत में मृत्यु का कारण कैसे स्थापित किया गया ? बिना पोस्टमॉर्टम और फॉरेंसिक रिपोर्ट के ये कैसे स्थापित किया गया की कितनी गोलियां चलायी गयीं ? ये कैसे स्थापित किया गया की गोली किस पिस्तौल से निकली थी ? इतने महत्वपूर्ण हत्याकांड की चार्जशीट गायब क्यों है ? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो उस समय की सरकार और इतिहासकारों को कटघरे में खड़ा करते हैं I

अब समय आ गया है जब हमें ना सिर्फ अंग्रेजों बल्कि मुग़लों के कालखंड के इतिहास को भी तथ्यात्मक रूप से पुनः लिखने की आवश्यकता है ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी को अपने सही और गौरवशाली इतिहास का ज्ञान हो सके तथा साथ ही साथ इस बात का भी ज्ञान हो सके की कैसे निहित स्वार्थ में की गयी वर्तमान की छोटी-छोटी त्रुटियाँ भविष्य की कई-कई पीढ़ियों पर भारी पड़ती हैं I

जो समाज तारीख को मिटाने का प्रयास करता है, एक दिन तारीख उस समाज को मिटा देती है I

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