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बलात्कार : क़ानून व्यवस्था अथवा समाज के अपराधीकरण का विषय
17 अक्टूबर 2020 (23:50)

उत्तर प्रदेश का एक शहर जो अपराध और बाहुबलियों के खूनी संघर्ष के लिए वैश्विक पटल पर कुख्यात था l जहां हत्याएं लोगों का ध्यान आकर्षित नहीं करती थी और सबकुछ सामान्य रहता था जैसे कुछ हुआ ही नहीं l संभवतः सत्तर के दशक का अंतिम अथवा अस्सी के दशक का आरंभिक कालखंड था जब शहर में आश्चर्यजनक रूप से एक बलात्कार हो जाता है l सारे शहर में आग लग जाती है l इससे पहले की प्रशासन कुछ करता, जनता बलात्कारी का घर फूंक देती है . . . वही जनता जो हत्याओं पर सामान्य रहा करती थी l इसके लगभग दस साल के बाद एक और ऐसी ही घटना होती है जिसमें मालिक से बदला लेने की मंशा से लूट, बलात्कार और हत्या हुई l एकबार पुनः शहर में आग लग गयी किन्तु इसबार जनता ने क़ानून अपने हाथ में नहीं लिया बल्कि अधिवक्ताओं ने अपराधी के पक्ष में खड़ा होने से इनकार कर दिया l इन दो घटनाओं का जिक्र सिर्फ ये बताने के लिए है की आज से मात्र 35 – 40 साल पहले बलात्कार जैसा अपराध कितना असामान्य था, यहाँ तक की, दुर्दांत अपराधियों की दृष्टि में भी बलात्कार एक घृणित अपराध था l समय बदलता गया और मानसिकता बदलती गयी l आज हम छः माह की बच्ची से होती हैवानियत पर भी सामान्य हो चुके हैं l आज आरोपी का अधिवक्ता अपने व्यवसाय की बाध्यता और दायित्व से दो कदम आगे निकलकर पूरी निर्लज्जता के साथ अनावश्यक रूप से सार्वजनिक मंचों से बलात्कार और हैवानियत की शिकार एक मृत युवती के चरित्र पर सवाल खड़े करता दिखाई देता है l नाबालिग के नाम पर सरकार बलात्कारी को सिलाई मशीन और दस हज़ार रूपए का शौर्य पुरस्कार देती है l जो सामूहिक बलात्कार कर सकता है वो नाबालिग कैसे हो सकता है ? यहाँ से समाज का मानसिक अपराधीकरण आरम्भ होता है l

बलात्कार सामाजिक समस्या ज्यादा और क़ानून व्यवस्था का विषय कम है l बलात्कार के मूल में है बिखरती हुई सामाजिक संरचना l नब्बे के दशक तक भारत की सामाजिक संरचना बेहद सुदृढ़ थी जहां परिवार के बाहर भी पूरे मोहल्ले की सभी महिलाओं और लड़कियों के साथ दीदी, बुआ, चाची, भाभी, अम्मा, दादी जैसे स्नेहपूर्ण रिश्तों का एक जुड़ाव था l एक दूसरे के प्रति संरक्षण, दायित्व, मर्यादा, श्रद्धा और आदर का भाव था l नब्बे के दशक के मध्य से एकाकी परिवारों का चलन आरम्भ हुआ l अधिकतर बाध्यता थी और कुछ स्वेच्छा से चुनाव l अचानक से पैसे आने शुरू हुए तो अहंकार भी आने लगा l पैसे के अहंकार ने ‘हैसियत’ वाली बीमारी को जन्म दिया जिसने पड़ोसी तो छोड़िये अपने नाते – रिश्तेदारों और परिवार तक से दूर कर दिया l अब इस वातावरण में पले – बढ़े बच्चों के लिए उनकी माता और माता के पेट से जन्मी बच्ची को छोड़ कर प्रत्येक महिला मात्र ‘एक औरत’ बनकर रह गयी है l बच्चे के लिए ये समझ पाना बेहद कठिन हो गया है की सार्वजनिक स्थल पर दिख रही उम्र में बड़ी एक महिला उसकी दीदी, भाभी, चाची, बुआ और छोटी बच्ची उसकी बहन अथवा बेटी हो सकती है क्योंकि ये रिश्ते या तो परिवार में समाप्त हो चुके है अथवा आपसी प्रतिस्पर्धा में बेहद विषाक्त और उलझे हुए हैं जिनकी कोई अहमियत नहीं रही l बलात्कार के प्रति उदासीनता और अपने ही रिश्तेदारों और जानकारों द्वारा बलात्कार इसी पारिवारिक और सामाजिक बिखराव का परिणाम है l

उपरोक्त मूल कारण के अलावा कई अन्य कारण भी हैं जिनपर प्रकाश डाला जाना बेहद आवश्यक है l

अन्य कारणों में सबसे प्रमुख है बवंडर सी बढ़ती हुई हमारी जनसँख्या l किसी भी देश के पास संसाधन सीमित ही होते हैं, अतः, ये हमसब का दायित्व है की हम अपनी जनसँख्या को उपलब्ध संसाधनों के अनुपात में ही रखें l किन्तु भारत के छद्दम लोकतंत्र में ये संभव न हो सका क्योंकि हम मूलतः एक भीड़तंत्र हैं l परिणाम ये हुआ की आज भारत में दो वर्ग तैयार हो गए हैं – एक जिसके पास खोने को कुछ है और दूसरा, जिसके पास खोने को कुछ भी नहीं है l जिसके पास खोने को थोड़ा भी है वही संविधान और क़ानून का सम्मान करता है और दूसरा जिसके पास खोने को कुछ भीं नहीं है वो न तो संविधान की परवाह करता है और न ही क़ानून की, न जेल जाने का भय है और न ही फांसी चढ़ने का l उसके जीवन में कोई उम्मीद अथवा प्रकाश नहीं है l उसके विकल्प का चुनाव स्पष्ट है –अपने जीवन की हताशा सबमें बाँटते रहो l इस बात को दूसरे ढंग से समझिये कि – एक वर्ग है जो किसी खूबसूरत सी प्रेमिका अथवा पत्नी के साथ किसी शॉपिंग मॉल में ऐश कर रहा है और दूसरा वर्ग उसी शॉपिंग मॉल के बाहर खड़े होकर इनसब को हसरत भरी दृष्टि से देख रहा है और हताशा से भर रहा है l दुधमुंही बच्चियों तक से दुष्कर्म अथवा बलात्कार के बाद अनावश्यक भयावह हिंसा इसी हताशा का परिणाम है l दुर्भाग्य से दूसरे वर्ग की जनसँख्या बहुत तीव्रता से बढ़ रही है जो भारत के शांतिपूर्ण भविष्य के लिए एक खतरा है l

‘तुम अपने फोन दिखा दो, मैं तुम्हारा चरित्र बता दूंगा’ l सुलभ और सस्ता होता संचार माध्यम भी बलात्कार के लिए उत्प्रेरक बन रहा है l आज किसी के पास खाने को भले ही न हो किन्तु सस्ते दर पर उपलब्ध स्मार्ट फ़ोन और डाटा पैक अवश्य है जिसमें आँख गड़ाया हुआ 90 प्रतिशत भारतीय आपको अवश्य दिखेगा l जिनके पास कोई काम नहीं है वो आखिर चौबीसों घंटे मोबाइल में क्या देखते हैं ? मोबाइल पर धड़ल्ले से पोर्न क्लिप साझा की और देखी जा रही है l हद तो ये है की यू-ट्यूब और फेसबुक जैसे प्रतिष्ठित मंच से भी ‘वयस्क कंटेंट’ के नाम पर ‘सॉफ्ट पोर्न’ खुलेआम परोसी जा रही है l ये सामग्री इतनी जहरीली है की सामान्य मन – मस्तिष्क के व्यक्ति को बुरी तरह से प्रभावित कर दे l यह सामग्री बच्चों तक आसानी से उपलब्ध हो गयी है l सोशल मीडिया पर उपलब्ध इन सभी सामग्रियों में एक बात उभयनिष्ठ है की शारीरिक सुख की प्राप्ति के आगे रिश्तों की मर्यादा का कोई महत्त्व नहीं है, परिवार अथवा समाज के सदस्य मात्र ‘मर्द’ और ‘औरत’ हैं और सभी किसी के भी साथ शारीरिक सुख पाने को बेचैन हैं l अधिकतर सोशल मीडिया के मंच अमेरिका और यूरोप के देशों से संचालित होते हैं जहां सौतेले बाप, भाई और बेटों द्वारा बलात्कार के मामले बेहद सामान्य और भरपूर हैं l यही संस्कृति भारत में भी फैलाने का सफल प्रयास किया जा रहा है l बलात्कार के 90 से 95 प्रतिशत मामले में आरोपी का कोई पुराना आपराधिक रिकॉर्ड नहीं पाया जा रहा है l अर्थात्, ये सभी सामान्य घरों के सामान्य युवक हैं और जो 5 प्रतिशत आपराधिक रिकॉर्ड वाले होंगे भी तो वो मामूली चोर उच्चके ही होते हैं l कोई हिस्ट्री शीटर, गैंगस्टर, गुंडा बलात्कार करने नहीं जाता l कहने का अर्थ है की, पूरी पीढ़ी एक मनोरोग और नैतिक पतन का शिकार होती जा रही है जिससे बचने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नग्नता पर प्रभावी रोक लगानी ही होगी l सोशल मीडिया के जो मंच भारत में स्वतंत्रता का ज्ञान झाड़ते हैं वही लोग चीन में जाकर घुटनों के बल झुक जाते हैं l

किसी ने कहा था की – ‘तुम वो सारे नाम बताओ जिसे तुम्हारे देश के युवा आदर्श मानते हैं, मैं तुम्हारे देश का भविष्य बता दूंगा’ l हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी दोष कम नहीं है l जिस देश में बच्चों के सामने मुग़ल और अंग्रेज बलात्कारियों, हत्यारों और लुटेरों को महान और भाग्य विधाता बना कर पढाया जाता हो, उनका महिमामण्डन किया जाता हो, जहां ब्रह्मचर्य के प्रयोग के नाम पर नाबालिग बच्चियों के साथ नग्न सोने वाले को महान बताया जाता हो, जहां किताबों में महिला को मर्द की खेती बताया जाता हो, वहाँ बलात्कार पर आक्रोशित होने का नैतिक अधिकार किसे रह जाता है ? जहां स्वामी विवेकानंद, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, वीर सावरकर, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, मंगल पांडे, झाँसी की रानी, बिरसा मुंडा को एक षड़यंत्र के तहत धीरे – धीरे गायब कर दिया गया हो वहां हम किस तरह के चरित्र वाली पीढ़ी के निर्माण की अपेक्षा कर सकते हैं ? ये हम सब के सोचने का विषय है l

बलात्कार के मामलों के प्रति समाज की उदासीनता का एक कारण फर्जी मामलों की अधिकता भी है जिसके लिए वो महिलाएं सीधे तौर पर जिम्मेवार हैं जो अपने निहित स्वार्थ अथवा द्वेषवश बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को एक शस्त्र की तरह प्रयोग करती हैं l हिंसारहित बलात्कार के मामले को समाज, पुलिस और यहांतक की अदालतें भी गंभीरता से नहीं लेतीं और शक की निगाह से देखती हैं जिसका कारण है हज़ारों की संख्या में दाखिल होते फर्जी बलात्कार के मुकदमें l कोई कहता है की – मेरा पांच साल पहले बलात्कार हुआ, शादी अथवा नौकरी का झांसा देकर बलात्कार किया, पिछले दो साल से मेरा बलात्कार कर रहा है . . . इत्यादि l प्रेमी युगल घर से भागे, पकड़ कर घर लाये गए और लड़की ने दबाव में अपने ही प्रेमी के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा कर दिया l आजकल ‘मी – टू’ अभियान भी चल निकाल है जिसने बलात्कार की गंभीरता को ही समाप्त कर दिया है l अलग – अलग अदालतों ने इस तरह के मामलों पर अपनी नाराजगी कई बार जाहिर भी की है किन्तु आवश्यकता है की इस तरह की महिलाओं को कठोर सजा मिले l यहाँ बलात्कार के वो मामले जो अदालत में साबित न हो सके उन्हें फर्जी नहीं कहा जा रहा बल्कि जो अदालतों में फर्जी साबित हो गए उन्हें ही फर्जी कहा जा रहा है l

आजकल जो बलात्कार के वास्तविक मामले हैं क्या उन्हें मात्र हवस का नाम देकर अपने दायित्व से मुक्त हुआ जा सकता है ? सवाल है की, जब पांच व्यक्ति एक महिला का आसानी से बलात्कार करके जा सकते हैं तो उसके साथ हैवानियत क्यों करते हैं ? छः माह की दुधमुंही बच्ची किसी की हवस को कैसे शांत कर सकती है ? वो बच्ची जिसे देखकर पत्थर के सीने में भी ममता फूट पड़े, उसके साथ दुष्कर्म कैसे संभव हो रहा है ? नहीं, ये मात्र हवस का मामला नहीं है क्योंकि हवस की शान्ति के लिए हर शहर, हर कस्बे में वेश्यालय हैं l ये एक बीमार, आपराधिक और कुंठित मानसिकता का मामला है l ऐसी मानसिकता एक दिन में अथवा एक कारण से नहीं बनती, यही समझाने का प्रयास है इस लेख में l हमें इस भयावह स्थिति से निकलने के लिए एक संगठित समाज के रूप में हर दिशा में कार्य करना होगा l बलात्कार के रूप में महिलाएं और बच्चियां शिकार इसलिए हो रही हैं क्योंकि ये कुंठित नपुंसक, महिलाओं पर ही अपनी ताकत दिखा सकते हैं l

आवश्यकता है की हम अपने सामाजिक संरचना को पुनः सुदृढ़ करें l झोलाछाप वामपंथी एनजीओ के ‘नारी अधिकारों और स्वतंत्रता’ वाले दुष्प्रचार में न फंस कर अपने समाज से जुड़ कर रहें और उसे निरंतर सुदृढ़ करते रहने के लिए प्रयासरत भी रहें l जनसँख्या नियंत्रण के लिए कठोर क़ानून और सनातन संस्कृति को स्कूली शिक्षा में शामिल कराने के लिए अपनी वाणी मुखर करें l अपने आस – पास हो रही घटनाओं के प्रति सजग, संगठित और मुखर रहें l देखिये, कोई बलात्कारी कितना भी आवेश में क्यों न हो, किसी मुसलमान लड़की पर हाथ नहीं डालता है क्योंकि उसे पता है की घटना के तुरंत बाद ही समाज की खूनी प्रतिक्रिया आएगी जिसमें वह परिवार समेत मारा जाएगा l इससे पुनः सीखने की आवश्यकता है जो हम भूल चुके हैं l और हाँ ! बलात्कारी को जाति और धर्म के चश्में से देखना बंद करना नितांत आवश्यक है l

ऐसा नहीं है की सरकार और क़ानून व्यवस्था का कोई दायित्व ही नहीं है l हर नागरिक को सुरक्षा प्रदान करना सरकार और कानून व्यवस्था का परम दायित्व है, किन्तु ये विषय, अपराध और उसके रोकथाम से जुड़े आगामी लेख में विस्तृत रूप से समाविष्ट किया जाएगा l

पूरे पृथ्वी पर लाखों प्राणियों में कलियुग का मनुष्य एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसके न तो खाने और संभोग का समय निश्चित है और न ही मात्रा l इसके अलावा हर प्राणी खाने और संभोग के मामले में बेहद अनुशासित दिनचर्या का पालन करता है l इससे एक बात सिद्ध होती है की असल में पृथ्वी पर एकमात्र जानवर मनुष्य ही है कोई और नहीं l   

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